
ये वो दौर है जब घर के तमाम पुराने सामान ओएलएक्स और क्विकर पर बेच डालने की रवायत-सी चल पड़ी है और ये वो दौर भी है कि परिवार में बुजुर्गों के लिए एक छोटा सा कोना आसानी से मयस्सर नहीं रह गया है.
12 हजार करोड़ का रेमंड्स का भव्य-विशाल साम्राज्य खड़ा करनेवाला विजयपत सिंघानिया जैसा शख्स 78 साल की उम्र में जब हमें किराए के फ्लैट से लेकर अदालत की देहरी तक दर-बदर मिलता है और करोड़ों की कीमत वाले फ्लैट में नितांत अकेली रहनेवाली 63 वर्षीया आशा सहनी जब अपने एनआरआई बेटे से बगैर कोई शिकवा-शिकायत चुपचाप कंकाल में तब्दील हो जाना मंजूर कर लेती है, तब भी क्या हम अपनी मशरूफियत में से एक पल फुर्सत निकालकर यह सोचना चाहते हैं कि इस मुल्क-इस समाज में जिंदगी की सांझ कितनी त्रासद, कितनी भयावह हो गयी है?
पर, सोचना-जानना जरूरी है कि कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा दौलत, तरक्की और कामयाबी हासिल करने की होड़ में जुटे हम-आप अपने आस-पास किस तरह का संसार रचते चले जा रहे हैं.
वर्ष 2015 में एक इंटरनेशनल नेटवर्क की ओर से दुनिया भर के 96 देशों में बुजुर्गों के रहने के लिए सबसे बेहतरीन और सबसे बदतरीन जगहों के बारे में स्टडी के बाद ग्लोबल एज वॉच इंडेक्स तैयार किया गया. इस इंडेक्स में भारत का स्थान 71वां है. इंडेक्स में सबसे अव्वल स्थान स्विट्जरलैंड को मिला. हम मान सकते हैं कि बुजुर्गों के लिए बेहतरीन जगह माने गए स्विट्जरलैंड, स्वीडन,जर्मनी, कनाडा, जापान जैसे मुल्कों में वहां की सरकारों ने वरिष्ठ नागरिकों की वित्तीय व कानूनी सुरक्षा के लिए शानदार पॉलिसियां लागू कर रखी हैं और बुढ़ापे में उन्हें भरण-पोषण और बाकी जरूरतों के लिए किसी का मोहताज नहीं होना पड़ता. लेकिन, जब हम भारत में बुजुर्र्गों की हालत से जुड़ी परिस्थितियों की पड़ताल करते हैं तब सबसे पहले इस समस्या की सामाजिक वजहें सामने दिखती हैं.
संयुक्त परिवार जैसे-जैसे ध्वस्त होते गए और उनकी जगह मियां-बीवी, बच्चों के तीन-चार-पांच सदस्यों वाले छोटे-छोटे कुनबे उगते चले गए, वैसे-वैसे यह समस्या ज्यादा बड़ी होती गई. हम अपने आस-पास जिधर भी नजर दौड़ा लें, मियां-बीवी को ऐसी मशीनों की शक्ल में पाएंगे जो सिर्फ और सिर्फ अपने दो-तीन बच्चों को कामयाबी की किसी सुरक्षित चोटी पर पहुंचाने, उनके फ्यूचर के लिए बड़ा बैंक बैलेंस और इन्वेस्टमेंट जोडऩे के जुनून में 24 गुणा 7जुते हुए हैं.
इन ‘मशीनों’ के पास संवेदना का इंधन इतना ही है कि वह मियां-बीवी, बच्चे की तिकोनी संरचना में ही पूरी तरह खर्च हो जाता हैै. मां-पिता, भाई-बहन, नाते-रिश्ते, मित्र-बंधु, पास-पड़ोस के लिए दो मिनट का वक्त तक नहीं है किसी के पास. रुपया-पैसा तो बहुत दूर की बात है. इंदिरा गांधी की हुकूमत के दौर में उछाले गए ‘हम दो-हमारे दो’ के नारे का मकसद आबादी के बढ़ते बोझ को कम करना था लेकिन हमने तो अपनी पूरी जिंदगी के चारों ओर इसके बहाने ऐसी दीवार खड़ी कर दी कि घर में चार के अलावा किसी के दाखिल होने के लिए छोटा सा दरवाजा तक नहीं रखा.
परिवार, पड़ोस, समाज से निरंतर कटते जाने और स्वकेंद्रित होते जाने का सिलसिला चल पड़ा. जाहिर है यही संस्कार हमने अपने बच्चों तक हस्तांतरित किया और जीवन की आखिरी बेला में उन्हीं बच्चों से उम्मीद करते हैं कि वे हमारी तरफ तवज्जो दें. हमारी तरह हमारे ‘बच्चों’ के लिए उनके बच्चे ही सबसे अहम हो जाते हैं और चौथेपन की दहलीज पर पहुंचे हम खुद दूध की मक्खी की तरह दरकिनार होकर रह जाते हैं. मुजाहिद फराज नाम के एक शायर ने ऐसे हालात को लेकर बड़ा ही मौजूं शेर कहा है-
सिलसिला लफ्जों की सौग़ात का भी टूट गया
राब्ता खत से मुलाकात का भी टूट गया
मां की आगोश में उल्फत की रवानी पाकर
बांध ठहरे हुए जज़्बात का भी टूट गया
एहतेराम अपने बुज़ुर्गों का अदब छोटों का
अब चलन ऐसी रिवायत का भी टूट गया .
आज की तारीख में भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में शुमार है. 10 से 30 वर्ष की उम्र की सबसे बड़ी आबादी हमारे देश की है. हिसाब लगाया गया है कि 2050 तक देश में 60 प्रतिशत लोग बूढ़े होंगे. अगर हमारी तर्ज-ए-जिंदगी ऐसी ही रही और बुजुर्गों की सामाजिक, आर्थिक,पारिवारिक सुरक्षा की दिशा में प्रयास नहीं हुए तो अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि आनेवाले वर्षों में समस्या कितनी गंभीर होनेवाली है.
बुजुर्गों के लिए काम करनेवाली संस्था हेल्पेज इंडिया की ओर से कुछ अरसा पहले देश के 12महानगरों में 1200 से ज्यादा बुजुर्गों के बीच कराए गए सर्वे में पाया गया कि इनमें से आधे से ज्यादा लोग अपने ही घरों में किसी न किसी रूप में प्रताडऩा का शिकार हो रहे हैं. तकरीबन 61 फीसदी बुजुर्गों ने अपनी उपेक्षा और प्रताडऩा के लिए बहुओं को जिम्मेदार माना. हालांकि इसी संस्था द्वारा इसके पहले कराए गए एक दूसरे सर्वे में उपेक्षा के लिए बेटों और बहुओं को जिम्मेदार माननेवालों का प्रतिशत लगभग बराबर था. 17 प्रतिशत बुजुर्गों ने बेटियों के हाथ प्रताडि़त होने की बात कही थी. जिन लोगों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया उनमें से 92 फीसदी अपने मकान में ही रहते थे. प्रताडऩा को लेकर पुलिस के पास शिकायत क्यों नहीं करते? इस सवाल के जवाब में लगभग 70 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि वे घर का माहौल खराब होने की वजह से शिकायत नहीं करना चाहते. पुलिस में शिकायत की तो अपनों के हाथों जुल्म का सिलसिला और तेज हो सकता हैं.
बूढ़े मां-पिता, सास-ससुर से बदसलूकी और पिटाई के कई वीडियोज और तस्वीरें पिछले कुछ सालों में हमारे सामने सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए सामने आयी हैं,जो यह बताती हैं कि हम सामाजिक तौर पर किस बर्बरता की तरफ बढ़ रहे हैं.
बुजुर्गों की उपेक्षा के खिलाफ कानून की बात करें तो सरकार ने वर्ष 2012 में सीनियर सिटिजन एक्ट 2007 को नए सिरे से लागू किया है. इस एक्ट के मुताबिक संतानों के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि वे अपने मां-पिता को आर्थिंक सहायता दें. इस एक्ट का उल्लंघन करने पर या बुज़ुर्गों पर अत्याचार करने वाले पर 5000 रुपए जुर्माना के साथ साथ तीन महीने की सजा मुकर्रर की जा सकती है. बेशक कानून को और असरदार बनाए जाने की दरकार है लेकिन भारत का जो सामाजिक ताना-बाना है, उसमें इस समस्या के समाधान के रास्ते कानून के बजाय सामाजिक तौर-तरीके से तलाशे जाने चाहिए. आशुफ्ता चंगेजी ने इन हालात पर बड़ा वाजिब फरमाया है-
तलाश जिनको हमेशा बुज़ुर्ग करते रहे
न जाने कौन सी दुनिया में वो खज़़ाने थे
चलन था सब के ग़मों में शरीक रहने का
अजीब दिन थे अजब सर-फिरे ज़माने थे